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उत्तराखंड के लोक पर्व हरेला की हार्दिक शुभकामनाएं

श्रावण माह में मनाये जाने वाला हरेला सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता तथा समूचे कुमाऊँ में अति महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक माना जाता है। सावन का महीना 4 जुलाई से शुरू हो गया है लेकिन भारत के कई राज्यों में सावन की शुरुआत अलग-अलग तिथियों से होती है. यह त्यौहार अधिक धूमधाम के साथ मनाया जाता है। जैसाकि हम सभी को विदित है कि श्रावण माह भगवान भोलेशंकर का प्रिय माह है, हरेले के इस पर्व को कुछ लोग इसे हर काली के नाम से भी जानते है।

श्रावण माह में मनाये जाने वाला हरेला सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता तथा समूचे कुमाऊँ में अति महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक माना जाता है। सावन का महीना 4 जुलाई से शुरू हो गया है लेकिन भारत के कई राज्यों में सावन की शुरुआत अलग-अलग तिथियों से होती है. यह त्यौहार अधिक धूमधाम के साथ मनाया जाता है। जैसाकि हम सभी को विदित है कि श्रावण माह भगवान भोलेशंकर का प्रिय माह है, हरेले के इस पर्व को कुछ लोग इसे हर काली के नाम से भी जानते है। श्रावण का महीना भोलेनाथ का प्रिय महीना माना जाता है। यह हम सब जानते ही है की उत्तराखण्ड पहाड़ी प्रदेश है और पहाड़ों पर ही भगवान शंकर का वास माना जाता है। इसलिए भी उत्तराखण्ड में श्रावण माह में पड़ने वाले हरेला का अधिक महत्व है। हरेला पर्यावरण से काफी जुड़ा हुआ है कई दिन सांस्कृतिक आयोजन के साथ-साथ ही पौधारोपण भी किया जाता है। जिसमें लोग में विभिन्न प्रकार के छायादार व फलदार पौधे रोपते हैं।
हरेला उत्तराखंड का लोकप्रिय पर्व है, जो की कर्क संक्रांति के दिन मनाया जाता है.

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हरेला को एक साल में तीन बार मनाया जाता है- पहली चैत्र मास, दूसरी सावन मास और तीसरी आश्विन महीने में.
हरेला पर्व का महत्व

हरेला को बोने के लिए बोने के लिए स्वच्छ मिट्टी का उपयोग किया जाता है,इसके लिए घर के पास साफ जगह से मिट्टी निकाली जाती है फिर उसे सुखाई जाती है और उसे छानकर टोकरी में रखा जाता है और फिर अनाज के दाने डालकर उसे सींचा जाता है. अनाज जैसे धान, मक्की, उड़द, गहत, तिल और भट्ट शामिल होते हैं. हरेला को घर में या देवस्थान पर बोया जाता है. घर में मंदिर के पास रखकर 9 दिन तक देखभाल की जाती है और फिर 10वें दिन घर के बुजुर्ग इसे काटकर अच्छी फसल की कामना के साथ देवताओं को समर्पित करते हैं.

हरेला बोने से हरेला त्योहार तक प्रतिदिन आवश्यकतानुसार सिचाई करते हैं। हरेले की पूर्व संख्या के दिन हरेले की गुड़ाई की जाती है। फिर हरेले को दो गुच्छों में बांध दिया जाता है। तिलक करके, मौसमी फल व पारंपरिक पकवान छऊ चढ़ाते हैं। इस दिन कुमाऊ के कई स्थानों में लोककला पर आधारित शिव पार्वती की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। हरेले की पूर्व सन्ध्या पर इनका पूजन होता है, जिसे डिकारा पूजा, डिकारे पूजन भी कहते हैं। हरेले के दिन घर के सदस्य जल्दी उठ कर घर की साफ सफाई करके पकवान बनाते है। फिर पुरोहित आकर हरेले की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। उसके बाद हरेला कुल देवताओं और नवजात शिशुओं को दिया जाता है। उसके बाद घर के बुजुर्ग अपने से छोटों के सिर में हरेले रख कर जी राए जागी राए” का आशीष देते हैं। कुमाऊं में कई जगह इस दिन नव विवाहिताएं अपने ससुराल से मिठाई ,पूरी, फल, फूल का उपहार अपने मायके लेकर जाती हैं। इस परम्परा को ओग देना कहते हैं।

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