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चैत्र नवरात्रि का पहला दिन मां शैलपुत्री की कथा

मां शैलपुत्री सती के नाम से भी जानी जाती हैं। इनकी कहानी इस प्रकार है - एक बार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ करवाने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने सभी देवी-देवताओं को निमंत्रण भेज दिया, लेकिन भगवान शिव को नहीं। देवी सती भलीभांति जानती थी कि उनके पास निमंत्रण आएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो उस यज्ञ में जाने के लिए बेचैन थीं, लेकिन भगवान शिव ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि यज्ञ में जाने के लिए उनके पास कोई भी निमंत्रण नहीं आया है और इसलिए वहां जाना उचित नहीं है। सती नहीं मानीं और बार बार यज्ञ में जाने का आग्रह करती रहीं।

 

मां शैलपुत्री सती के नाम से भी जानी जाती हैं। इनकी कहानी इस प्रकार है – एक बार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ करवाने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने सभी देवी-देवताओं को निमंत्रण भेज दिया, लेकिन भगवान शिव को नहीं। देवी सती भलीभांति जानती थी कि उनके पास निमंत्रण आएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो उस यज्ञ में जाने के लिए बेचैन थीं, लेकिन भगवान शिव ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि यज्ञ में जाने के लिए उनके पास कोई भी निमंत्रण नहीं आया है और इसलिए वहां जाना उचित नहीं है। सती नहीं मानीं और बार बार यज्ञ में जाने का आग्रह करती रहीं। सती के ना मानने की वजह से शिव को उनकी बात माननी पड़ी और अनुमति दे दी।

 

सती जब अपने पिता प्रजापित दक्ष के यहां पहुंची तो देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं और सिर्फ उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। उनकी बाकी बहनें उनका उपहास उड़ा रहीं थीं और सति के पति भगवान शिव को भी तिरस्कृत कर रहीं थीं। स्वयं दक्ष ने भी अपमान करने का मौका ना छोड़ा। ऐसा व्यवहार देख सती दुखी हो गईं। अपना और अपने पति का अपमान उनसे सहन न हुआ…और फिर अगले ही पल उन्होंने वो कदम उठाया जिसकी कल्पना स्वयं दक्ष ने भी नहीं की होगी।

 

सती ने उसी यज्ञ की अग्नि में खुद को स्वाहा कर अपने प्राण त्याग दिए। भगवान शिव को जैसे ही इसके बारे में पता चला तो वो दुखी हो गए। दुख और गुस्से की ज्वाला में जलते हुए शिव ने उस यज्ञ को ध्वस्त कर दिया। इसी सती ने फिर हिमालय के यहां जन्म लिया और वहां जन्म लेने की वजह से इनका नाम शैलपुत्री पड़ा।

 

मां शैलपुत्री का वास काशी नगरी वाराणसी में माना जाता है। वहां शैलपुत्री का एक बेहद प्राचीन मंदिर है जिसके बारे में मान्यता है कि यहां मां शैलपुत्री के सिर्फ दर्शन करने से ही भक्तजनों की मुरादें पूरी हो जाती हैं। कहा तो यह भी जाता है कि नवरात्र के पहले दिन यानि प्रतिपदा को जो भी भक्त मां शैलपुत्री के दर्शन करता है उसके सारे वैवाहिक जीवन के कष्ट दूर हो जाते हैं। चूंकि मां शैलपुत्री का वाहन वृषभ है इसलिए इन्हें वृषारूढ़ा भी कहा जाता है। इनके बाएं हाथ में कमल और दाएं हाथ में त्रिशूल रहता है।

 

पूजा विधि

 

सबसे पहले मां शैलपुत्री की तस्वीर स्थापित करें और उसके नीचे लकड़ी की चौकी पर लाल वस्त्र बिछाएं। इसके ऊपर केशर से ‘शं’ लिखें और उसके ऊपर मनोकामना पूर्ति गुटिका रखें। तत्पश्चात् हाथ में लाल पुष्प लेकर शैलपुत्री देवी का ध्यान करें।

 

मंत्र इस प्रकार है-

 

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ शैलपुत्री देव्यै नम:।

 

मंत्र के साथ ही हाथ के पुष्प मनोकामना गुटिका एवं मां के तस्वीर के ऊपर छोड़ दें। इसके बाद प्रसाद अर्पित करें तथा मां शैलपुत्री के मंत्र का जाप करें। इस मंत्र का जप कम से कम 108 करें।

मंत्र – ॐ शं शैलपुत्री देव्यै: नम:।

 

मंत्र संख्या पूर्ण होने के बाद मां दुर्गा के चरणों में अपनी मनोकामना व्यक्त करके मां से प्रार्थना करें तथा आरती एवं कीर्तन करें। मंत्र के साथ ही हाथ के पुष्प मनोकामना गुटिका एवं मां के तस्वीर के ऊपर छोड़ दें। इसके बाद भोग अर्पित करें तथा मां शैलपुत्री के मंत्र का जाप करें। यह जप कम से कम 108 होना चाहिए।

रिपू मुरख मौही डरपावे॥

 

श्री दुर्गा चालीसा

 

नमो नमो दुर्गे सुख करनी ।

नमो नमो अम्बे दुखहरनी ।।

 

निरंकार है ज्योति तुम्हारी ।

तिहुँ लोक फैली उजियारी ।।

 

शशि लिलाट मुख महाविशाला ।

नेत्र लाल भृकुटी विकराला ।।

 

रुप मातु को अधिक सुहावे ।

दरश करत जन अति सुखपावे ।।

 

तुम संसार शक्ति लय कीना ।

पालन हेतु अन्न धन दीना ।।

 

अन्नपूर्णा हुई जग पाला ।

तुम ही आदि सुन्दरी बाला ।।

 

प्रलयकाल सब नाशन हारी।

तुम गौरी शिव शंकर प्यारी ।।

 

शिव योगी तुम्हरे गुण गावें ।

ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें ।।

 

रुप सरस्वती को तुम धारा ।

दे सुबद्धि ऋषि मुनिन उबारा ।।

 

धरा रुप नरसिंह को अम्बा ।

परगट भई फाड़ कर खम्बा ||

 

रक्षा करि प्रहलाद बचायो ।

हिरणाकुश को स्वर्गं पठायो ।।

 

लक्ष्मी रुप घरो जग माहीं ।

श्री नारायण अंग समाहीं ।।

 

क्षीरसिंधु में करत विलासा ।

दयासिंधु दीजै मन आसा ।।

 

हिंगलाज में तुम्हीं भवानी ।

महिमा अमित न जात बखानी ।।

 

मातंगी धूमावती माता ।

भुवनेश्वरि बगला सुख दाता ।।

 

श्री भैरव तारा जग तारिणी ।

छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी ।।

 

केहरि वाहन सोह भवानी।

लंगुर बीर चलत अगवानी ।।

 

कर में खप्पर खड़ग विराजै ।

जाको देख काल डर भाजै ।।

 

सो अस्त्र और त्रिशूला ।

जाते उठत शत्रु हिय शूला ।।

 

नगरकोट में तुम्हीं बिराजत ।

तिहूँ लोक में डंका बाजत ।।

 

शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे ।

रक्त बीज शंखन संहारे ।।

 

महिषासुर नृप अति अभिमानी ।

जेहि अघ भार मही अकुलानी ।।

 

रुप कराल काली को धारा ।

सेन सहित तुम तिहि संहारा ।।

 

परी गाढ़ सन्तन पर जब जब।

भई सहाय मातु तुम तब तब ||

 

अमर पुरी औरौं सब लोका ।

तब महिमा सब रहे अशोका ।।

 

ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी ।

तुम्हें सदा पूजें नरनारी ॥

 

प्रेम भक्ति से जो जस गावे ।

दुःख दारिद्र निकट नहीं आवे ।।

 

घ्यावे तुम्हें जो नर मन लाई ।

जन्म मरण ताको छुटि जाई ।।

 

जोगी सुर-मुनि कहत पुकारी ।

योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी ||

 

शंकर आचारज तप कीनो ।

काम औ क्रोध जीति सब लीनो ||

 

निशिदिन ध्यान घरो शंकर को ।

काहु काल नहि सुमिरो तुमको ।।

 

शक्ति रुप को मरम न पायो ।

शक्ति गई तब मन पछितायो ।।

 

शरणागत हुई कीर्ति बखानी ।

जय जय जय जगदंब भवानी ।।

 

भई प्रसन्न आदि जगदंबा ।

दई शक्ति नहीं कीन विलंबा ।।

 

मोको मातु कष्ट अति घेरो ।

तुम बिन कौन हरे दुःख मेरो ।।

 

आशा तृष्णा निपट सतावे ।

मोह मदादिक सब विनशावें ||

 

शत्रु नाश कीजे महारानी ।

सुमिरौ इकचित तुम्हें भवानी ॥

 

करो कृपा हे मातु दयाला ।

ऋद्धि सिद्धि दे करहु निहाला ।।

 

जब लगि जियाँ दयाफल पाँऊ ।

तुम्हरौ जस में सदा सुनाऊँ ।।

 

दुर्गा चालीसा जो कोई गाउँ ।

सब सुख भोग परम पद पावैं ।।

 

देवीदास शरण निज जानी ।

करहु कृपा जगदंबा भवानी ।।

 

॥ इति श्री दुर्गा चालीसा सम्पूर्ण ॥

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